Jul 14, 2008

दो बेटियों के खिलाफ समूचे समाज की साजिश

पेशे से टीचर हूं। रोज घर से स्कूल के बीच अनेक अनुभव होते हैं। यहां तक कि स्कूल में भी। कई दफा ऐसे वाकये सामने आते हैं कि मन खिन्न हो जाता है। जैसे कल का ही वाकया। यह घटनाक्रम औरतों को उनकी औकात बताने की साजिश से कम नहीं है।
कल छुट्टी का दिन था। सो, एक सहेली के पास गई थी। कुछ देर इधर-उधर की बातों के बाद वो अपना दुखड़ा सुनाने बैठ गई। दरअसल उनके परिवार में तीन भाइयों के बीच हाल ही बंटवारा हुआ है। वो अपने एक बेटे और दो बेटियों को राजधानी में पढ़ाना चाहती है। उसका गांव कोई ४५ किलोमीटर दूर है शहर से। अपने एक बेटे को तो शहर में एक स्कूल में दाखिला दिलवा दिया। साथ में उनकी बड़ी बहन के बेटे को, जो इस साल १२ वीं में पहुंच गया है, को भी दाखिला दिलवा दिया। सोचा, दोनों साथ रह लेंगे। परसों वो अपनी दो छोटी-छोटी प्यारी सी बेटियों को भी पढ़ाने के लिए राजधानी ले आई। यह बात शायद उनके जेठ, जो उनके जीजा भी हैं, को सहन नहीं हुई कि औरत कैसे इतना बड़ा फैसला ले सकती है। उन्होंने अपने बेटे को फोन करके कहा कि बेटा, सामान पैक कर ले, मैं आ रहा हूं तुझे लेने के लिए। इसे पढ़ाने दे अपनी बेटियों को। हम गांव में ही पढ़ लेंगे।
जानते हो, इसके बाद क्या हुआ। शाम तक सहेली के पास कई फोन आए। उसकी मां, भाई, पति व अन्य रिश्तेदार। सभी का कहना था कि तू जीजा की बात क्यों नहीं मानती। उस शर्मनाक पहलु को किसी ने नहीं देखा, जो दो बेटियों की पढ़ाई में जाने-अनजाने बाधक बन रहा था। मन मसोसकर सहेली को मजबूरन दोनों बेटियों को गांव लेकर जाना पड़ा। देश की दो लाड़िलयां, अच्छी तालीम से वंचित कर दी गई। सिर्फ संकीर्ण पारम्परिक सोच की वजह से, जो सोच लड़कों को तो पढ़ने के पर्याप्त अवसर मुहैया करवाती है, लेकिन बेटियों की राह का रोड़ा बन जाती है।
सुनकर मैं भी व्यथित हो गई। अनेक सवाल मन में उमड़ आए। आखिर उन दो बेटियों का क्या कसूर था? क्या उन्हें पढ़ने का हक नहीं? उन्हें तो पता भी नहीं कि उनके इर्द-गिर्द किस तरह सीमा रेखाएं खींच दी गईं। अब वे गांव में ही पढ़ेंगी। जैसी भी शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध है, उसी में उनको ढलना है। उन्हें हिदायतों के पुलिन्दे में लपेट दिया जाएगा। उनके व्यक्तित्व विकास की पाठशाला में प्रथम कदम पर ही बड़ी बाधा आ पड़ी। और यह बाधा उनके सारे भावी जीवन को उलट देगी।
एक महिला, जिसने दो बेटियों के लिए कुछ साहस दिखाया तो उसे समूचे समाज ने मिलकर कमजोर साबित कर दिया। सबने जता दिया कि वह घर, परिवार, समाज तथा रिश्तों की देहरी से बाहर नहीं है। जब उसने प्रतिरोध की ध्वनि को अनसुना कर राजधानी में कदम रखे, तो यह घर के पुरुष को बर्दाश्त नहीं हुआ। उसका अहं आहत हुआ और उसने समाज का सहारा लिया। उसके पैरों में जंजीर पहना दी। एक औरत को, कमजोर साबित कर एक भयभीत पुरुष का अहंकार शांत हो गया? नहीं, यह उसका भ्रम है, क्योंकि सम्पूर्ण चर्चा के बाद उस सहेली की आंखों में मैंने दृढ़ता के भाव देखे हैं। जो और भी बड़े फैसले की ओर बढ़ रही है।

7 comments:

मीत said...

sahi kaha apne hamare samaj main abhi itni gandagi hai, ki use thik tarah se saf karne main na jane kitna samay lagega lekin koshish zari rahegi...

or apne jo pryas kiya hai usse kam jarur banega..

god bless u!

दिनेशराय द्विवेदी said...

गाँव और शहर की पढ़ाई में फर्क क्यों है? और लड़के ही क्यों जाएँ शहर में पढ़ने, लड़कियाँ क्यों नहीं जाएँ? या दोनों ही गाँव में क्यों न पढ़ लें? सब बातों पर सोचना पड़ेगा। व्यवस्था को बदलने की दिशा में काम करना पड़ेगा।

सुजाता said...

अन्नू ,
स्पेस फॉर विमेन के लिए संघर्ष में आपका कदम सराहनीय है ।
इस विषय में
जितनी बात हो , जितनी ज़्यादा हो , उतना ही अच्छा है । इसलिए आपके ब्लॉग की शुरुआत को मैं बहुत उम्मीद से देख रही हूँ ।

चोखेर बाली -
sandoftheeye.blogspot.com

स्त्री मुद्दों को उठाने और उनपर बात करने , जानकारियाँ बांटने , सम्वाद कायम करने का काम कम्यूनिटी ब्लॉग -चोखेर बाली - कर रहा है ।आपका ब्लॉग इसमें सहयोगी साबित होगा ।
धन्यवाद !

सुजाता said...

यह ज़रूर देखिये -
http://sandoftheeye.blogspot.com/2008/07/blog-post_15.html

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

इस कहानी में एक जगह यह बताया गया है कि “उन्होंने अपने बेटे को फोन करके कहा कि बेटा, सामान पैक कर ले, मैं आ रहा हूं तुझे लेने के लिए। इसे पढ़ाने दे अपनी बेटियों को। हम गांव में ही पढ़ लेंगे।” यानि जब बेटियाँ भी पढ़ने के लिए शहर पहुँच गयीं तो इन सज्जन ने अपने बेटे को भी गाँव वापस बुलाने का निर्णय कर लिया।… इससे मैं थोड़ा कन्फ्यूज हो गया हूँ। क्या उन्हें बेटियों को बराबरी देने से आपत्ति थी? या कुछ और।
आपकी पोस्ट में जो मुद्दा उठाया गया है वह बेशक सोचने पर मजबूर कर देता है। बच्चों की शिक्षा देने के मामले में बेटों को प्राथमिकता देना लगभग स्थापित नियम सा रहा है। इसके कारण पर बिना उग्र हुए विचार करना चाहिए। हमारे समाज में लड़कों को बड़ा होकर रोजगार पाना अनिवार्य होता है। क्योंकि जो बेरोजगार हैं उन्हें उपेक्षा और सामाजिक प्रताड़ना सहनी पड़ती है। आर्थिक तंगी का शिकार होना पड़ता है, पत्नी की कमाई पर जीवनयापन करना आजभी शर्मनाक माना जाता है, जबकि लड़कियों के लिए ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। क्योंकि परिवार के लिए रोटी कमाकर लाने की प्राथमिक जिम्मेदारी पुरूष पर और घर व बच्चों को संभालने का दायित्व स्त्री पर होने की परंपरा भी प्रायः स्थापित ही है। अब बदलते जमाने में इस स्थापित भूमिका में बदलाव आ रहा है। इसके साथ ही हमें बेटे-बेटियों की शिक्षा संबन्धी विकल्प भी पुनः परिभाषित करना होगा।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

ऊपर की मेरी टिप्पणी पढ़कर मेरी धर्मपत्नी ने बहस छेड़ दी और मेरी ‘अवधारणा’ पर घोर आपत्ति दर्ज किया। उन्हे शायद ऐसा लगा कि मैं लड़के और लड़कियों को शिक्षा देने में बरती जा रही गैर-बराबरी की हिमायत कर रहा हूँ। मुझे उन्हें अपना नज़रिया समझाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी है। ऐसी ही ग़लतफहमी यहाँ भी न हो जाय इसलिए दुबारा आ गया हूँ।
मैने लड़कों की शिक्षा को सीधे रोज़गार से जोड़ कर समझने की जो कोशिश की है, और लड़कियों के लिए ऐसी ‘अनिवार्यता न होने’ की बात की है वह मेरा value judgement नहीं है, अर्थात उसे उचित बताने का प्रयास मैने नहीं किया है। यह सिर्फ अपने आस-पास देखे हुए और भोगे हुए यथार्थ का वर्णन मात्र है। मेरा मानना है कि इस सोच में परिवर्तन आना चाहिए।

Unknown said...

अन्नू जी,

आपके ब्लाग के बारे में चोखेरवाली पर पढ़ा. वहां सुजाता जी ने आपकी इस पोस्ट का कुछ अंश पोस्ट किया है. मैंने भी वहां अपनी राय दर्ज की है, जिसे यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ:
"ऐसी घटनाएं दुखद है. इन्हें किसी भी हालत में सही नहीं ठहराया जा सकता. एक स्त्री एक फ़ैसला करती है. इस से एक पुरूष का अहम आहत होता है. वह इस फैसले के रास्ते में वाधाएं पैदा करता है. लेकिन इस के लिए उसे पूरे समाज का समर्थन मिला है ऐसा कहना ग़लत है. उस ने ऐसा करने के लिए, अपने जैसे कुछ पुरूषों का सहयोग लिया होगा. संभवतया उसे कुछ स्त्रियों का सहयोग भी मिला होगा. मेरे विचार में स्त्रिओं को स्त्रियों के ऊपर हो रहे अत्त्याचार के ख़िलाफ़ एक होना चाहिए. अगर स्त्रियाँ एक हो जांए तो ऐसे पुरुषों को हिम्मत नहीं होगी स्त्रियों पर अत्त्याचार करने की. ऐसी स्थिति में सही सोच वाले पुरुषों का समर्थन भी मिलेगा स्त्रियों को. पूरे समाज पर दोष लगाने से बात नहीं बनेगी."

आपने लिखा है कि आपकी सहेली के परिवार में तीनों भाइयों में हाल ही में बंटवारा हुआ है. जब बंटवारा हो गया है तब एक भाई दूसरे भाई के परिवार में दखल क्यों दे रहा है? सहेली की माँ और पति इस बात पर ऐतराज न करके उन को ही फोन क्यों करते हैं और कहते हैं कि वह जीजाजी की बात क्यों नहीं मानतीं. सहेली की मां एक स्त्री हैं. उनके पति अपने भाइयों से अलग हो चुके हैं और पूरी तरह स्वतंत्र हैं अपने बच्चों के भविष्य में निर्णय करने के लिए. आप की सहेली ने अपनी बेटिओं को शहर में पढ़ाने के लिए अपने पति की राय भी ली होगी. मुझे लगता है मसला इतना साफ़ नहीं है. सारे समाज को दोषी ठहराने से क्या समस्या हल हो जायेगी? आपकी सहेली को और उनके पति को मिलकर एक फ़ैसला करना होगा, और फ़िर उस फैसले में कोई दखलंदाजी न करे यह स्पष्ट सिगनल सब को देना होगा. जाहिर है यह फ़ैसला बेटिओं के हक़ में ही हना चाहिए.