Jul 15, 2008

लड़कियां फेल क्यों हो गईं?

उसके आंसू थम नहीं पा रहे थे। गला भर्राया हुआ। उसकी स्थिति ऐसी थी कि बस अभी गला फाड़ के रो पड़ेगी। लेकिन पास खड़े पिता के भय से किसी तरह रोने को जब्त किए थी। हम सब हैरान-परेशान से। आखिर क्या किया जाए? उसका कसूर बस इतना सा था कि वह पढ़ना चाहती थी। घर वाले पढ़ाने को इच्छुक नहीं थे। उसे जिस कसूर की सजा दी जा रही थी वह यह कि वह नवीं कक्षा में फेल हो गई थी। अब दुबारा पढ़ने को उत्सुक थी। घर वालों को भरोसा दिला रही थी कि इस बार और मन से पढ़ेगी। लेकिन उसकी सारी इच्छाएं दबी रह गई। उसका बाप टीसी का टुकड़ा जेब में ठूंस चल दिया। पीछे-पीछे मायूस, हताश सी लड़की भी चल दी। उसने जाते समय एक कातर दृष्टि हम सब की तरफ डाली। सच कहूं, उसकी बेबसी और लाचारी देख मेरा कलेजा मुंह को आ गया। क्योंकि उसके पिता को समझाने की सारी कोशिशें नाकाम हो गई। उसका एक ही जवाब था कि पढ़ के क्या करेगी यह। ज्यादा से ज्यादा एकाध साल और स्कूल में रह लेगी। फिर तो इसको ससुराल जाना ही है। अभी घर रहेगी, तो काम-धाम सीख जाएगी। लड़की फेल हो गई। सबने यही देखा। सबने यही समझा। यह किसी ने जानने की कोशिश नहीं की कि लड़की फेल कैसे हो गई? क्यों हो गई? वह स्कूल तो रोज आती थी। उसके पास कॉपी-किताबें-पैन-बस्ता वगैरह सब कुछ था। देर-सवेर ड्रेस भी सिल के आ चुकी थी। फिर लड़की फेल क्यों हो गई?
यह अकेली लड़की नहीं, जो फेल हो गई और उससे स्कूल छुड़वा लिया गया। मुझे याद आया। जब नवीं कक्षा का रिजल्ट सुनाया गया था तो तीन और लड़कियां थीं, जो फेल हो गई थी। उन्हें भी घर वालों ने फरमान सुना दिया था कि अब स्कूल जाने की जरूरत नहीं। जब ये लड़कियां रिजल्ट सुनने के बाद घर जा रही थीं तो सभी जोर-जोर से रो रही थीं। सब रोते-रोते कह रही थीं कि अब उनकी शादी कर दी जाएगी। उन्हें न पढ़ने का मलाल इसलिए ज्यादा था कि अब उनकी शादी कर दी जाएगी। यानी वे अब अधिक दिन खैर नहीं मना पाएंगी। फिर वही सवाल? लड़कियां फेल क्यों हो गईं? उनके पास सब कुछ था जो एक स्टूडेंट के पास होना चाहिए। लेकिन जब मैंने कारण खोजे तो असलियत सामने आ गई। मैंने सब लड़कियों से अलग से बात की। दो-तीन घंटे तक हमारा डिस्कस होता रहा। घर का सारा काम और इसके बाद स्कूल। उनके नाखूनों में कहीं आटा फंसा था। हथेलियां गोबर से पीली पड़ चुकी थीं। पैरों में मैल जमा था। नन्हे मासूम पैरों में बिवाइयां फटी हुई थीं। घर का काम उनकी प्राथमिकता है। स्कूल सैकण्डरी चीज है। लड़कियों के मासूमियत भरे जवाब सुनकर मैं दंग रह गई। किशोर वय लड़कियां और ढेर सारा बोझ। यह एक प्रचलित सा मुहावरा है कि गांव की लड़कियों को सुबह चार बजे मां के साथ ही जग जाना है। वे जल्दी उठकर इस समय का उपयोग पढ़ाई के लिए नहीं करेंगी, बल्कि उन्हें मां के साथ जुटना है। गोबर फेंकना, पाथना, घर बुहारना, लकड़ियां इकट्ठी करना लड़की होने के नाते उनके लिए अनिवार्य शर्त है। यहां तक कि छोटे भाई-बहिन हुए तो उनके जगने से लेकर उनके नित्यकर्म, नहलाना, खाने का इन्तजाम वगैरह सब इन्हीं के मत्थे है। इस बीच जरा सा समय मिला तो वे स्कूल के लिए तैयार हो लेंगी, वर्ना जस-तस प्रार्थना तक दौड़ी चली आएंगी। गीले बालों से भीगे हुए कपड़े, पसीने से तरबतर, अस्त-व्यस्त सी।
उस समय मुझे कुछ सूझ नहीं पा रहा था। अन्दर तक भरी हुई थी। कमरे में निस्तबधता छाई हुई थी। मुझे ध्यान आया, तो मैंने चैतन्य होते हुए लड़कियों पर नजर डाली। सब झुकी हुई डाल सी नजर आईं। नजरें नीची थीं, पैरों के नाखूनों की ओर। जैसे किसी अपराधबोध से ग्रस्त हों।
क्या यह अपराधबोध कभी हम महसूस कर पाएंगे?

5 comments:

ghughutibasuti said...

जी हाँ, लड़की होने का अपराध बोध ही नहीं हुआ तो लड़की होने का अहसास कैसे होगा? यदि लड़की होने का अहसास न हुआ तो लड़के ना होने के दुर्भाग्य का अहसास कैसे होगा? यदि लड़की को लड़के न होने का अपराध बोध और दुर्भाग्य का अहसास न हुआ तो फिर लड़के को अपने लड़के होने के अभिमान का कैसे अहसास होगा? यदि यह सब न हुआ तो फिर सारी संस्कृति सभ्यता का क्या होगा? यह सब बहुत आवश्यक है ताकि जैसा है वह चलता रहे। यही तो संस्कृति की माँग है।
घुघूती बासूती

डॉ .अनुराग said...

sirf sharmsar hun...kuch kah nahi pa raha....

ab inconvenienti said...

जो समाज जितना प्रगतिशील, खुले और विकसित विचारों वाला होगा वह उतना ही स्त्रियों के प्रति उदार विचार रखेगा. यह दोष पिछडेपन का है, शहरों में भी लड़कियों के लिए बंधन हैं, पर पढने से झोपड़पट्टी में रहने वाला परिवार भी अपनी लड़कियों को (प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से) नहीं रोकता.

अगर बात सिर्फ़ पुरुषों के अहम् की होती तो काफी आसान थी, पर यहाँ खलनायक पिछडी मानसिकता है. कोई पढ़ा लिखा पिता अपनी बेटी की पढ़ाई में तो कम से कम बाधा नहीं डालता है. दहेज़ जैसी कुप्रथाएं मुंबई बंगलूर जैसे महानगरों से विदा ले रहीं हैं. और वहां की अधिकतर जनसँख्या शिक्षित है.

आप इन सब बातों पर सिर्फ़ खेद जता कर या स्तब्ध रहकर समाज के पिछडेपन को दूर नहीं कर सकते. और कुछ बने न बने पर एक बात ज़रूर कारगर हो सकती है, सरकार के जितने भी फंड शिक्षा के लिए आता है अगर वह ईमानदारी से उसी में पूरा लगाया जाए तो इस तरह लड़कियों की पढ़ाई छूटते देख दुखी नहीं होना पड़ेगा. क्योंकि तब समाज पिछडेपन से भी उबरने लगेगा.

सुजाता said...

एक सही प्रश्न और सम्वेदनशील पोस्ट !

Unknown said...

बात सही है. प्रश्न भी सही उठाये गए हैं. पढ़ कर मन भर आता है. आँखें गीली हो जाती हैं. अपनी संवेदना पोस्ट कर देते हैं. और कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है. फ़िर किसी दूसरे ब्लाग पर कोई और पोस्ट पढ़ने चल देते हैं.

अन्नू जी ने जो लिखा है क्या वह पहली बार लिखा गया है? क्या ऐसा होता है हमें पता नहीं है? पर कर क्या रहे हैं हम सब लोग? अन्नू जी एक टीचर हैं, वह सामने हैं इस लिए उन्हें दुःख होना स्वभाविक है. वह इन बातों को उठा रही हैं इस की प्रशंसा की जानी चाहिए. पर इस मसले मैं वह ही कुछ कर भी सकती हैं. वह, अन्य टीचर और प्रिंसिपल कुछ करें तो शायद बात बन जाए. उस छेत्र में कार्यरत सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों और बड़े-बूढ़ों का सहयोग लिया जा सकता है. कुछ शुरुआत होनी चाहिए. कहते हैं न, चलेंगे नहीं तो पहुंचेंगे कैसे?