तीन दिन पहले ब्लॉग बनाया। दो पोस्ट लिखी भीं। कहना न होगा, अच्छा रेस्पॉन्स मिला। स्त्री मुद्दों पर बात करने के इरादे से यह शुरुआत ठीक ही कही जाएगी। शुरुआती टिप्पणियों ने हौसले को परवाज दे दी। हालांकि किसी लेखन के लिए टिप्पणियों की अनिवार्य शर्त नहीं है, फिर भी दबी-छुपी इच्छा रहती ही है कि टिप्पणियां आती रहें तो बराबर लगता रहता है कि हां, लिखा कहीं कूड़े में नहीं जा रहा। भले ही एक शख्स ही पढ़े, टिप्पणी करे। सुकून रहता है कि कहीं से तो शुरुआत हुई।
मेरी दो पोस्टों पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं आईं। कुछ ने अफसोस प्रकट किया। कुछ ने आश्चर्य जताया। कुछ ने व्यवस्था बदलने की बात कही। आश्चर्य इस बात को लेकर भी था कि क्या कहीं ऐसी भी घटनाएं होती हैं। उनकी नजर में तो परिवर्तन हो चुका। व्यवस्था बदल चुकी। नारी कहीं की कहीं पहुंच चुकी। गांव बदल चुके हैं। वहां के लोग भी बदल चुके हैं। साठ साल में ऐसा हो भी जाना चाहिए था। लेकिन यह सच नहीं है। एक टीचर होने के नाते हम जिस गांव को देख रहे हैं। जिन गांवों को देखते हैं। जिनको देखा है। वे कोई राजधानी नहीं है। मेट्रो शहर बनने की ओर अग्रसर नहीं हैं। वे विशुद्ध गांव ही हैं और हल्की-हल्की करवट ले रहे हैं। वहां अब भी घूंघट काढ़े जाते हैं। बच्चियां अब भी दसवीं के बाद ब्याह दी जाती हैं। पांच प्रतिशत ही पढ़ने आस-पास के शहरों में जाती हैं। उनके मां-बाप खेतिहर हैं। पशु पालते हैं। कुछ-कुछ जमीनों का धंधा करने लगे हैं। इस धंधे में बेशक पैसा आ गया होगा उनकी जेब में, लेकिन इससे तालीम नहीं आ पाई। एकदम से सोच नहीं बदल गई उनकी। क्योंकि पढ़ाई ही ऐसी चीज है, जो पीढ़ियों के अन्तर से बदले, लेकिन सोच बदलती है।
जो इन चीजों को नकारता है, उन्हें कईं दूरदराज गांवों में जाकर पड़ताल करनी चाहिए। आज भी ऐसे गांव हैं, जो विकास की मुख्य धारा से कोसों दूर हैं। हम शहर में चौबीस घंटे बिजली के बीच रहते हैं, लेकिन बहुत से गांवों में अब भी तय समय से बिजली आती है। छह या सात घंटे। जिन गांवों ने तेजी से तरक्की की, उसके अधिकतर के कारण राजनीतिक ही रहे हैं। या शहरों के पास लगते गांव विकास की रफ्तार में शामिल हो गए। इसलिए आश्चर्य जताने से काम नहीं चल सकता। हमें किसी न किसी मार्फत एक बार कोई पिछड़ा हुआ गांव जरूर देखना चाहिए। उसके बाद आपकी टिप्पणी का इन्तजार रहेगा।
Jul 17, 2008
Jul 15, 2008
लड़कियां फेल क्यों हो गईं?
उसके आंसू थम नहीं पा रहे थे। गला भर्राया हुआ। उसकी स्थिति ऐसी थी कि बस अभी गला फाड़ के रो पड़ेगी। लेकिन पास खड़े पिता के भय से किसी तरह रोने को जब्त किए थी। हम सब हैरान-परेशान से। आखिर क्या किया जाए? उसका कसूर बस इतना सा था कि वह पढ़ना चाहती थी। घर वाले पढ़ाने को इच्छुक नहीं थे। उसे जिस कसूर की सजा दी जा रही थी वह यह कि वह नवीं कक्षा में फेल हो गई थी। अब दुबारा पढ़ने को उत्सुक थी। घर वालों को भरोसा दिला रही थी कि इस बार और मन से पढ़ेगी। लेकिन उसकी सारी इच्छाएं दबी रह गई। उसका बाप टीसी का टुकड़ा जेब में ठूंस चल दिया। पीछे-पीछे मायूस, हताश सी लड़की भी चल दी। उसने जाते समय एक कातर दृष्टि हम सब की तरफ डाली। सच कहूं, उसकी बेबसी और लाचारी देख मेरा कलेजा मुंह को आ गया। क्योंकि उसके पिता को समझाने की सारी कोशिशें नाकाम हो गई। उसका एक ही जवाब था कि पढ़ के क्या करेगी यह। ज्यादा से ज्यादा एकाध साल और स्कूल में रह लेगी। फिर तो इसको ससुराल जाना ही है। अभी घर रहेगी, तो काम-धाम सीख जाएगी। लड़की फेल हो गई। सबने यही देखा। सबने यही समझा। यह किसी ने जानने की कोशिश नहीं की कि लड़की फेल कैसे हो गई? क्यों हो गई? वह स्कूल तो रोज आती थी। उसके पास कॉपी-किताबें-पैन-बस्ता वगैरह सब कुछ था। देर-सवेर ड्रेस भी सिल के आ चुकी थी। फिर लड़की फेल क्यों हो गई?
यह अकेली लड़की नहीं, जो फेल हो गई और उससे स्कूल छुड़वा लिया गया। मुझे याद आया। जब नवीं कक्षा का रिजल्ट सुनाया गया था तो तीन और लड़कियां थीं, जो फेल हो गई थी। उन्हें भी घर वालों ने फरमान सुना दिया था कि अब स्कूल जाने की जरूरत नहीं। जब ये लड़कियां रिजल्ट सुनने के बाद घर जा रही थीं तो सभी जोर-जोर से रो रही थीं। सब रोते-रोते कह रही थीं कि अब उनकी शादी कर दी जाएगी। उन्हें न पढ़ने का मलाल इसलिए ज्यादा था कि अब उनकी शादी कर दी जाएगी। यानी वे अब अधिक दिन खैर नहीं मना पाएंगी। फिर वही सवाल? लड़कियां फेल क्यों हो गईं? उनके पास सब कुछ था जो एक स्टूडेंट के पास होना चाहिए। लेकिन जब मैंने कारण खोजे तो असलियत सामने आ गई। मैंने सब लड़कियों से अलग से बात की। दो-तीन घंटे तक हमारा डिस्कस होता रहा। घर का सारा काम और इसके बाद स्कूल। उनके नाखूनों में कहीं आटा फंसा था। हथेलियां गोबर से पीली पड़ चुकी थीं। पैरों में मैल जमा था। नन्हे मासूम पैरों में बिवाइयां फटी हुई थीं। घर का काम उनकी प्राथमिकता है। स्कूल सैकण्डरी चीज है। लड़कियों के मासूमियत भरे जवाब सुनकर मैं दंग रह गई। किशोर वय लड़कियां और ढेर सारा बोझ। यह एक प्रचलित सा मुहावरा है कि गांव की लड़कियों को सुबह चार बजे मां के साथ ही जग जाना है। वे जल्दी उठकर इस समय का उपयोग पढ़ाई के लिए नहीं करेंगी, बल्कि उन्हें मां के साथ जुटना है। गोबर फेंकना, पाथना, घर बुहारना, लकड़ियां इकट्ठी करना लड़की होने के नाते उनके लिए अनिवार्य शर्त है। यहां तक कि छोटे भाई-बहिन हुए तो उनके जगने से लेकर उनके नित्यकर्म, नहलाना, खाने का इन्तजाम वगैरह सब इन्हीं के मत्थे है। इस बीच जरा सा समय मिला तो वे स्कूल के लिए तैयार हो लेंगी, वर्ना जस-तस प्रार्थना तक दौड़ी चली आएंगी। गीले बालों से भीगे हुए कपड़े, पसीने से तरबतर, अस्त-व्यस्त सी।
उस समय मुझे कुछ सूझ नहीं पा रहा था। अन्दर तक भरी हुई थी। कमरे में निस्तबधता छाई हुई थी। मुझे ध्यान आया, तो मैंने चैतन्य होते हुए लड़कियों पर नजर डाली। सब झुकी हुई डाल सी नजर आईं। नजरें नीची थीं, पैरों के नाखूनों की ओर। जैसे किसी अपराधबोध से ग्रस्त हों।
क्या यह अपराधबोध कभी हम महसूस कर पाएंगे?
यह अकेली लड़की नहीं, जो फेल हो गई और उससे स्कूल छुड़वा लिया गया। मुझे याद आया। जब नवीं कक्षा का रिजल्ट सुनाया गया था तो तीन और लड़कियां थीं, जो फेल हो गई थी। उन्हें भी घर वालों ने फरमान सुना दिया था कि अब स्कूल जाने की जरूरत नहीं। जब ये लड़कियां रिजल्ट सुनने के बाद घर जा रही थीं तो सभी जोर-जोर से रो रही थीं। सब रोते-रोते कह रही थीं कि अब उनकी शादी कर दी जाएगी। उन्हें न पढ़ने का मलाल इसलिए ज्यादा था कि अब उनकी शादी कर दी जाएगी। यानी वे अब अधिक दिन खैर नहीं मना पाएंगी। फिर वही सवाल? लड़कियां फेल क्यों हो गईं? उनके पास सब कुछ था जो एक स्टूडेंट के पास होना चाहिए। लेकिन जब मैंने कारण खोजे तो असलियत सामने आ गई। मैंने सब लड़कियों से अलग से बात की। दो-तीन घंटे तक हमारा डिस्कस होता रहा। घर का सारा काम और इसके बाद स्कूल। उनके नाखूनों में कहीं आटा फंसा था। हथेलियां गोबर से पीली पड़ चुकी थीं। पैरों में मैल जमा था। नन्हे मासूम पैरों में बिवाइयां फटी हुई थीं। घर का काम उनकी प्राथमिकता है। स्कूल सैकण्डरी चीज है। लड़कियों के मासूमियत भरे जवाब सुनकर मैं दंग रह गई। किशोर वय लड़कियां और ढेर सारा बोझ। यह एक प्रचलित सा मुहावरा है कि गांव की लड़कियों को सुबह चार बजे मां के साथ ही जग जाना है। वे जल्दी उठकर इस समय का उपयोग पढ़ाई के लिए नहीं करेंगी, बल्कि उन्हें मां के साथ जुटना है। गोबर फेंकना, पाथना, घर बुहारना, लकड़ियां इकट्ठी करना लड़की होने के नाते उनके लिए अनिवार्य शर्त है। यहां तक कि छोटे भाई-बहिन हुए तो उनके जगने से लेकर उनके नित्यकर्म, नहलाना, खाने का इन्तजाम वगैरह सब इन्हीं के मत्थे है। इस बीच जरा सा समय मिला तो वे स्कूल के लिए तैयार हो लेंगी, वर्ना जस-तस प्रार्थना तक दौड़ी चली आएंगी। गीले बालों से भीगे हुए कपड़े, पसीने से तरबतर, अस्त-व्यस्त सी।
उस समय मुझे कुछ सूझ नहीं पा रहा था। अन्दर तक भरी हुई थी। कमरे में निस्तबधता छाई हुई थी। मुझे ध्यान आया, तो मैंने चैतन्य होते हुए लड़कियों पर नजर डाली। सब झुकी हुई डाल सी नजर आईं। नजरें नीची थीं, पैरों के नाखूनों की ओर। जैसे किसी अपराधबोध से ग्रस्त हों।
क्या यह अपराधबोध कभी हम महसूस कर पाएंगे?
Jul 14, 2008
दो बेटियों के खिलाफ समूचे समाज की साजिश
पेशे से टीचर हूं। रोज घर से स्कूल के बीच अनेक अनुभव होते हैं। यहां तक कि स्कूल में भी। कई दफा ऐसे वाकये सामने आते हैं कि मन खिन्न हो जाता है। जैसे कल का ही वाकया। यह घटनाक्रम औरतों को उनकी औकात बताने की साजिश से कम नहीं है।
कल छुट्टी का दिन था। सो, एक सहेली के पास गई थी। कुछ देर इधर-उधर की बातों के बाद वो अपना दुखड़ा सुनाने बैठ गई। दरअसल उनके परिवार में तीन भाइयों के बीच हाल ही बंटवारा हुआ है। वो अपने एक बेटे और दो बेटियों को राजधानी में पढ़ाना चाहती है। उसका गांव कोई ४५ किलोमीटर दूर है शहर से। अपने एक बेटे को तो शहर में एक स्कूल में दाखिला दिलवा दिया। साथ में उनकी बड़ी बहन के बेटे को, जो इस साल १२ वीं में पहुंच गया है, को भी दाखिला दिलवा दिया। सोचा, दोनों साथ रह लेंगे। परसों वो अपनी दो छोटी-छोटी प्यारी सी बेटियों को भी पढ़ाने के लिए राजधानी ले आई। यह बात शायद उनके जेठ, जो उनके जीजा भी हैं, को सहन नहीं हुई कि औरत कैसे इतना बड़ा फैसला ले सकती है। उन्होंने अपने बेटे को फोन करके कहा कि बेटा, सामान पैक कर ले, मैं आ रहा हूं तुझे लेने के लिए। इसे पढ़ाने दे अपनी बेटियों को। हम गांव में ही पढ़ लेंगे।
जानते हो, इसके बाद क्या हुआ। शाम तक सहेली के पास कई फोन आए। उसकी मां, भाई, पति व अन्य रिश्तेदार। सभी का कहना था कि तू जीजा की बात क्यों नहीं मानती। उस शर्मनाक पहलु को किसी ने नहीं देखा, जो दो बेटियों की पढ़ाई में जाने-अनजाने बाधक बन रहा था। मन मसोसकर सहेली को मजबूरन दोनों बेटियों को गांव लेकर जाना पड़ा। देश की दो लाड़िलयां, अच्छी तालीम से वंचित कर दी गई। सिर्फ संकीर्ण पारम्परिक सोच की वजह से, जो सोच लड़कों को तो पढ़ने के पर्याप्त अवसर मुहैया करवाती है, लेकिन बेटियों की राह का रोड़ा बन जाती है।
सुनकर मैं भी व्यथित हो गई। अनेक सवाल मन में उमड़ आए। आखिर उन दो बेटियों का क्या कसूर था? क्या उन्हें पढ़ने का हक नहीं? उन्हें तो पता भी नहीं कि उनके इर्द-गिर्द किस तरह सीमा रेखाएं खींच दी गईं। अब वे गांव में ही पढ़ेंगी। जैसी भी शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध है, उसी में उनको ढलना है। उन्हें हिदायतों के पुलिन्दे में लपेट दिया जाएगा। उनके व्यक्तित्व विकास की पाठशाला में प्रथम कदम पर ही बड़ी बाधा आ पड़ी। और यह बाधा उनके सारे भावी जीवन को उलट देगी।
एक महिला, जिसने दो बेटियों के लिए कुछ साहस दिखाया तो उसे समूचे समाज ने मिलकर कमजोर साबित कर दिया। सबने जता दिया कि वह घर, परिवार, समाज तथा रिश्तों की देहरी से बाहर नहीं है। जब उसने प्रतिरोध की ध्वनि को अनसुना कर राजधानी में कदम रखे, तो यह घर के पुरुष को बर्दाश्त नहीं हुआ। उसका अहं आहत हुआ और उसने समाज का सहारा लिया। उसके पैरों में जंजीर पहना दी। एक औरत को, कमजोर साबित कर एक भयभीत पुरुष का अहंकार शांत हो गया? नहीं, यह उसका भ्रम है, क्योंकि सम्पूर्ण चर्चा के बाद उस सहेली की आंखों में मैंने दृढ़ता के भाव देखे हैं। जो और भी बड़े फैसले की ओर बढ़ रही है।
कल छुट्टी का दिन था। सो, एक सहेली के पास गई थी। कुछ देर इधर-उधर की बातों के बाद वो अपना दुखड़ा सुनाने बैठ गई। दरअसल उनके परिवार में तीन भाइयों के बीच हाल ही बंटवारा हुआ है। वो अपने एक बेटे और दो बेटियों को राजधानी में पढ़ाना चाहती है। उसका गांव कोई ४५ किलोमीटर दूर है शहर से। अपने एक बेटे को तो शहर में एक स्कूल में दाखिला दिलवा दिया। साथ में उनकी बड़ी बहन के बेटे को, जो इस साल १२ वीं में पहुंच गया है, को भी दाखिला दिलवा दिया। सोचा, दोनों साथ रह लेंगे। परसों वो अपनी दो छोटी-छोटी प्यारी सी बेटियों को भी पढ़ाने के लिए राजधानी ले आई। यह बात शायद उनके जेठ, जो उनके जीजा भी हैं, को सहन नहीं हुई कि औरत कैसे इतना बड़ा फैसला ले सकती है। उन्होंने अपने बेटे को फोन करके कहा कि बेटा, सामान पैक कर ले, मैं आ रहा हूं तुझे लेने के लिए। इसे पढ़ाने दे अपनी बेटियों को। हम गांव में ही पढ़ लेंगे।
जानते हो, इसके बाद क्या हुआ। शाम तक सहेली के पास कई फोन आए। उसकी मां, भाई, पति व अन्य रिश्तेदार। सभी का कहना था कि तू जीजा की बात क्यों नहीं मानती। उस शर्मनाक पहलु को किसी ने नहीं देखा, जो दो बेटियों की पढ़ाई में जाने-अनजाने बाधक बन रहा था। मन मसोसकर सहेली को मजबूरन दोनों बेटियों को गांव लेकर जाना पड़ा। देश की दो लाड़िलयां, अच्छी तालीम से वंचित कर दी गई। सिर्फ संकीर्ण पारम्परिक सोच की वजह से, जो सोच लड़कों को तो पढ़ने के पर्याप्त अवसर मुहैया करवाती है, लेकिन बेटियों की राह का रोड़ा बन जाती है।
सुनकर मैं भी व्यथित हो गई। अनेक सवाल मन में उमड़ आए। आखिर उन दो बेटियों का क्या कसूर था? क्या उन्हें पढ़ने का हक नहीं? उन्हें तो पता भी नहीं कि उनके इर्द-गिर्द किस तरह सीमा रेखाएं खींच दी गईं। अब वे गांव में ही पढ़ेंगी। जैसी भी शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध है, उसी में उनको ढलना है। उन्हें हिदायतों के पुलिन्दे में लपेट दिया जाएगा। उनके व्यक्तित्व विकास की पाठशाला में प्रथम कदम पर ही बड़ी बाधा आ पड़ी। और यह बाधा उनके सारे भावी जीवन को उलट देगी।
एक महिला, जिसने दो बेटियों के लिए कुछ साहस दिखाया तो उसे समूचे समाज ने मिलकर कमजोर साबित कर दिया। सबने जता दिया कि वह घर, परिवार, समाज तथा रिश्तों की देहरी से बाहर नहीं है। जब उसने प्रतिरोध की ध्वनि को अनसुना कर राजधानी में कदम रखे, तो यह घर के पुरुष को बर्दाश्त नहीं हुआ। उसका अहं आहत हुआ और उसने समाज का सहारा लिया। उसके पैरों में जंजीर पहना दी। एक औरत को, कमजोर साबित कर एक भयभीत पुरुष का अहंकार शांत हो गया? नहीं, यह उसका भ्रम है, क्योंकि सम्पूर्ण चर्चा के बाद उस सहेली की आंखों में मैंने दृढ़ता के भाव देखे हैं। जो और भी बड़े फैसले की ओर बढ़ रही है।
Subscribe to:
Posts (Atom)